रविवार, नवंबर 08, 2009

हमें माफ कर देना प्रभाषजी...

हमें माफ कर देना प्रभाषजी...जिस इंदौर शहर पर आप इठलाते थे और मैं इठलाता हूं। उस शहर ने अपने सपूत को अंतिम वक्‍त में याद नहीं किया। अरविंदजी ने भड़ास पर लिखा है कि शहर की गिने चुने पत्रकार ही आपकी अंतिम यात्रा में पहुंचे, ये सुनकर एक आघात सा लगा। इंदौर वही शहर है जब पिछले दिनों एक पत्रकार पर हमला हुआ था तो सभी पत्रकारसाथी सड़क पर उतर आए थे। और जब आज पत्रकारिता का वटवृक्ष जिसकी छाया तले कई लोंगों ने शीतलता का आनंद लिया है। वो वटवृक्ष नहीं रहा तो उसकी निर्जिव काया को कंधा देने तक कोई नहीं पहुंचा। इतना बेइमान तो नहीं था ये इंदौर शहर...। ये तो वो शहर है जब बंदर या नंदी की मौत हो जाती है तो लोग गोजबाजे के साथ अंत्‍येष्टि करते हैं। अखबार वाले तीन या चार कॉलम खबर लगाते हैं। पांच महीने पहले इंदौर गया था तो लगा शहर मेट्रो सिटी बनता जा रहा है। लेकिन ये नहीं सोचा था कि पोहा जलेबी खाने वाले शहर के लोगों की दिल अखरोट की तरह सख्‍त हो जाएंगे। और तो और पत्रकारिता की नर्सरी कहलाते वाले शहर के पत्रकारों को क्‍या हो गया है। समझ नहीं आता है इंदौर जहां के पत्रकार सबसे ज्‍यादा एकजुट हैं, पत्रकार साथी पर कोई विपदा आती है तो कंधे से कंधा मिलाते हैं। फिर एक युग पुरुष की विदाई पर ये बेरुखी क्‍यों...। प्रभाषजी का इंदौरीपन कभी नहीं छूटा...दो साल से दिल्‍ली में हूं हर सप्‍ताह उनका कागद कारे पढ़ता रहा हूं। लेकिन उन्‍होंने हमेशा ‘अपन’ शब्‍द का इस्‍तेमाल किया। कभी मैं का इस्‍तेमाल नहीं किया। उन्‍होंने मालवीपन को पत्रकारिता की शैली बना दिया। लेकिन मालवा के पत्रकार उन्‍हें अंतिम पलों में श्रद्धांजलि तक नहीं दे पाए...शर्म से सिर झुक गया है। रज्‍जू बाबू (राजेंद्र माथुर) के बाद एक वर्तमान था प्रभाष जोशी...वो भी अब रज्‍जू बाबू के समकक्ष हो गया है। अरविंदजी ने लिखा कि लकड़ी कंडे भी न मिलते...ये सुनकर दिल रो पड़ा...हमें माफ कर देना प्रभाषजी... हमें माफ कर देना
फोटो – अखिल हार्डिया, इंदौर