बुधवार, जून 24, 2009

मजा नहीं आया फादर्स डे में


स बार भी फादर्स डे आया साथ में वर्ल्‍ड म्‍यूजिक डे भी लाया। हमारे अधिकांश अख़बारों में वही घिसी-पिटी स्‍टोरीज थीं। चार-पांच पिताओं से बात, कि उन्‍हें कब अहसास हुआ वे पिता हैं। उन्‍हें पिता होने के कौन से पल अच्‍छे लगे। कुछ अख़बारों ने अपने सर्वे करा लिए। कुछ अख़बार म्‍यूजिक और फादर्स डे एक ही पेज पर कवर करने के चक्‍कर में किसी के भी साथ इंसाफ नहीं कर पाए। नईदुनिया का इंदौर संस्‍करण उनमें से एक था। भास्‍कर में भी कुछ खास नहीं हुआ। पत्रिका जयपुर ने जरूर सर्वे दिखा दिया कि कब पापा बनने का अहसास हुआ। टाइम्‍स ने हमेशा की तरह इस डे का विलायतीपन बताते हुए हाईप्रोफाइल और बॉलीवुड में पिता और बच्‍चों के रिश्‍ते को बताया। एचटी भी अमूमन इसी राह पर था। रविवार होने के कारण सप्‍लीमेंट भी फादर्स डे को समर्पित थे। लेकिन प्रभावशाली नहीं थे। हां हिंदी अखबार फादर्स डे पर वृद्धाश्रम में मजबूर पिताओं की स्‍टोरी करना नहीं भूले। फिर मैंने उस दिन के कुछ विदेशी अख़बार देखे। अधिकांश अख़बारों में पहले पेज पर फादर्स डे वाली ख़बर थी। जबकि हमारे यहां अंदर के सप्‍लीमेंट्स पर। हो सकता है पश्चिम डे है इसलिए वे लोग प्रथम पेज पर स्‍थान देते हैं। हमारे कुछ अख़बारों ने अच्‍छी स्‍टोरी की लेकिन ठीक से प्‍ले नहीं कर पाए। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्‍योंकि इस प्रकार के पेजों को बनाने का अनुभव मेरे पास भी है। हमारे सामने भी वही समस्‍या होती थी। जो अन्‍य अख़बारों के सामने होती है, कि दूसरों से अलग हमारी स्‍टोरी कैसी हो। जब हम स्‍टोरी आइडिया तय करते थे, तब सोचते थे ये दूसरे अख़बारों से अलग होगा, होता भी था लेकिन लोकल लेवल पर। जब देशभर के अख़बार देखते थे तो निराश हो जाते थे। इस बार भी वही हुआ। लेकिन विदेश के कुछ अख़बारों में काबिले तारीफ कवरेज है। एक अख़बार में अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा का उनकी बेटी साशा के साथ फोटो प्रकाशित किया है। वो भी हेडर से उपर हेडलाइन के साथ। कवरेज तो प्रशंसनीय है ही, लेकिन जो लेआउट का प्रयोग फोटो के साथ है वो भी कम नहीं है। एक अख़बार ने ऐसे पिता की तस्‍वीर छापी है जो ए‍क दिन पहले ही पिता बना है और वो भी एक नहीं तीन बच्‍चों का। कहने का मतलब ये नहीं कि विदेशी अख़बार हमसे बहुत ज्‍यादा अच्‍छे हैं। ये बात सही है कि जो दौर आज हमारे यहां है वो दौर कभी वहां भी रहा होगा। फिर निरंतर विकास की प्रक्रिया से वे आज की स्थिति तक पहुंचे। अगर तुलानात्‍मक अध्‍ययन करें तो आजादी के सिर्फ छह दशक में हमारे अख़बारों ने जो प्रगति की वह बेमिसाल है। जबकि विदेश में अधिकांश अख़बार जो बड़े नाम हैं, उन्हें सौ साल से ज्‍यादा हो चुके हैं। हमारे यहां टाइम्‍स, हिंदू ही ऐसे अख़बार हैं जो सौ साल पुराने हैं। फिर हम विदेश के अख़बारों से अच्‍छी चीजें लेकर उसका भारतीयकरण कर अच्‍छे से प्रस्‍तुत कर सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे महेश भट्ट की फिल्‍मों में होता है। लेकिन ख़बर हमारी होगी। फादर्स डे पर कुछ अच्‍छे पेज संग्रहित किए हैं। आशा है सुधि मित्रों के काम आएंगे।
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