मंगलवार, जून 23, 2009

विष्णु नागर की 'गरमा-गरम' टिप्पणी

के नईदुनिया में विष्णु नागर की गरमा-गरम टिप्पणी छपी है। क्या जोरदार लिखा है विष्णुजी ने नाम में क्या ‘रक्खा’ है। वास्तव में नाम शब्द को लेकर इतनी गरम टिप्पणी कोई नहीं कर सकता है। उनकी कलम चली है दिल्ली के नाम बदलने की बहस पर। सुधि मित्रों के लिए बेहतर लेखन शैली का का इससे बेहतरीन नमूना शायद ही कहीं देखने को मिले। ऐसी टिप्žपणी लिखने के लिए विष्णुजी को बधाई।


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नाम में क्या रक्खा है?
विष्णु नागर


शेक्सपियर ने सही कहा है कि नाम में क्या रक्खा है? अब हमें ही लो। हमारा नाम विष्णु है। किसी को विष्णु कहने में दिक्कत होती है, तो वह बिस्नु कह देता है। विष्णु प्रभाकरजी के जीवित रहते कुछ ऐसे महानुभाव भी थे, जो हमें गलती से विष्णु प्रभाकर समझकर फोन कर देते थे। अब हमें तमाम लोग अर्थशास्त्री विष्णुदत्त नागर समझने की गलती किया करते हैं तो हम इनका क्या करें और हमारा नाम जिन भगवान के नाम पर है, उनके तो एक भी गुण, एक भी लक्षण हममें नहीं हैं। वे तो शेषशायी हैं। समुद्र में शेष नाग के फन के नीचे विश्राम किया करते हैं। लक्ष्मी उनके चरण दबाती रहती हैं। जहाँ तक अपना सवाल है जिस साँप का जहरीला दाँत निकाला जा चुका है, वह भी अगर फुफकार दे तो अपन दो कदम पीछे हट जाते हैं। विश्राम की तो छोड़िए हम विश्राम करने का सपना भी अगर आ जाए तो हम पसीना-पसीना हो जाएँ और रातभर फिर नींद न आए! और जहाँ तक समुद्र में विश्राम करने का प्रश्न है, तो हमारे लिए तो घर ही बहुत है। इस देश में कहने को अपना एक घर है, यही क्या कम है? पैर दबवाने की हमें आदत नहीं और हमारी लक्ष्मीजी को इतनी फुर्सत भी नहीं कि हमसे कहें, लाओजी, आपके पैर दबा दूँ! ईश्वर हम हैं नहीं, यहाँ तक कि ईश्वर में हमारा विश्वास तक नहीं है! तो हमारा नाम जरूर है विष्णु, लेकिन दूर-दूर तक हम विष्णु नहीं। लेकिन नाम यह है तो है! इसी तरह हमारे शहर दिल्ली को कोई देहली कहता है, कोई डेल्ही और कोई दिल्ली। अब कोई कहे कि नहीं जी इसका नाम तो सिर्फ एक ही रख दो- दिल्ली तो इसका क्या तुक है? जिसे जो कहना होगा, वही इसे कहेगा। उससे देहली या डेल्ही की बजाय दिल्ली लिखवाना चाहोगे तो वह लिख देगा। लेकिन इससे किसी को क्या लड्डू मिलेगा? इसलिए जो चल रहा है, चलने दो। जो नहीं चलना चाहिए, जब वह भी आराम से चल रहा है तो जो चलने योग्य है, उसे तो चलने दो!


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