मंगलवार, मई 27, 2008

गांव नहीं जा पाता पत्रकार

यह लेख अंबरीश जी के ब्लाग विरोध से साभार है साथियों के काम है

अंबरीश कुमार

हिन्दू के ग्रामीण मामलों के संपादक पी साईनाथ ने हाल ही में टिप्पणी की थी-महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद उसकी कवरेज के लिए राष्ट्रीय मीडिया के सिर्फ छह पत्रकार पहुंचे। जबकि उसी दौरान मुंबई में चल रहे लक्मे फैशन वीक को कवर करने के लिए ५१२ पत्रकार लगे हुए थे। विदर्भ की कवरेज के लिए जो छह पत्रकार गए थे, उनमें ज्यादातर तब पहुंचे जब प्रधानमंत्री वहां गए। यानी वे कृषि संकट को नहीं, प्रधानमंत्री को कवर करने गए थे। मीडिया के सामाजिक सरोकार के बारे में यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है। पर हिन्दी और अंग्रेजी मीडिया ने भी इस मुद्दे को लेकर काफी विरोधाभास है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद मीडिया की प्राथमिकताएं काफी बदल गई हैं। अंग्रेजी मीडिया पर उतने दबाब नहीं हैं जितने भाषाई और हिन्दी मीडिया पर। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में भुखमरी की खबर देने वाली जनसत्ता के महासमुंद जिले की संवाददाता शिखा दास का न सिर्फ उत्पीड़न किया गया बल्कि उसको धमकाने के बाद गिरफ्तार करने का प्रयास राज्य सरकार की पुलिस ने किया था। पर उसी सरकार ने सरकार की नीतियों व कार्यक्रमों का जमकर प्रचार-प्रसार करने वाले अंग्रेजी के एक बड़े अखबार की महिला संवाददाता को दो लाख रूपए का पुरस्कार दिया गया। यह बात अलग है कि छत्तीसगढ़ में कुछ महीने की पत्रकारिता करने वाली इन मोहतरमा को यह नहीं पता था कि आलू जमीन के नीचे होता है या जमीन के ऊपर। सामाजिक सरोकार या जनपक्षीय पत्रकारिता का जोखिम आज भी हिन्दी पत्रकारिता ज्यादा उठा रही है। हालांकि अब ज्यादातर अखबारों में न तो मालिकों के लिए सामाजिक सरोकार कोई मुद्दा है और न ही नए पत्रकारों के लिए। ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में स्टेट्समैन की तरफ से पहला पुरस्कार पाने वाले ७६ वर्षीय राज नारायण मिश्र का मानना है कि अब ज्यादातर पत्रकार मेहनत नहीं करते हैं। दूसरे अखबारों में आने वाली विज्ञप्तियों की संख्या काफी ज्यादा बढ़ गई है, शिकायतों की संख्या पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा बढ़ गई है। इसके बाद बची जगह भ्रष्टाचार और अपराध से संबंधित खबरों के हिस्से में चली जती है। सामाजिक सरोकार के लिए अब जगह ही नहीं बची है। भूख, भुखमरी और कर्ज में डूबे किसानों का सवाल हो या फिर जल, जंगल, जमीन के मुद्दे, अखबारों में इनकी जगह कम होती ज रही है। अस्सी के दशक में जब हमने पत्रकारिता शुरू की थी तो उस समय समाज के बारे में, जन आंदोलनों के बारे में लिखने का रूङान था। आपातकाल के बाद छात्र आंदोलन खासकर जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े नौजवानों का एक वर्ग पत्रकारिता में भी आया। इसका सकारात्मक असर भी दिखा। अस्सी के दशक में ही हिन्दी पत्रकारिता की याचक व सुदामा वाली दयनीय छवि को पहले रविवार ने तोड़ा फिर जनसत्ता के उदय ने इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। उससे पहले हिन्दी पत्रकार का वह रूतबा नहीं होता था जो अंग्रेजी के पत्रकार का होता था। सन १९८४ के दंगों में सिखों के कत्लेआम की खबरें जनसत्ता ने जिस अंदाज में दीं, उसने इस अखबार को नई ऊंचाई पर पहुंचाया। इसके बाद के राजनैतिक घटनाक्रम और मीडिया कवरेज में हिन्दी मीडिया की भूमिका बदली। उस समय तक दिल्ली की पत्रकारिता में अंग्रेजी का वर्चस्व था। इसी दौर में राजनैतिक घटनाओं की कवरेज हिन्दी मीडिया ने अंग्रेजी मीडिया से लोहा भी लिया। उस दौर में प्रसार संख्या का वह दबदबा नहीं था जो आज है। यह भूमंडलीकरण के पहले के दौर की बात है। तब किसी अखबार में प्रबंधक यह नहीं समङा सकता था कि कैसी खबरें लिखी जएं? पर नब्बे के दशक के बाद हालात तेजी से बदले। पहले मंडल फिर कमंडल ने मीडिया को भी विभाजित कर दिया। सन १९९२ में बाबरी मस्जिद ध्वंस के साथ ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने वाली खबरें थीं तो दूसरी तरफ सांप्रदायिकता का मुकाबला करने वाले पत्रकार थे। उत्तर प्रदेश में कुछ अखबारों की प्रसार संख्या उसी दौर में तेजी से बढ़ी भी। इसके बाद उदारीकरण का नया दौर शुरू हुआ और सामाजिक सरोकार से जुड़ी खबरें हाशिए पर जने लगीं। नब्बे के दशक के बाद से ही संपादक नाम की संस्था खत्म होने लगी। प्रबंधन तंत्र में मार्केटिंग विभाग का दबदबा बढ़ने लगा। अब प्रबंधन संपादकों को प्रसार और विज्ञापन बढ़ाने के नए तौर-तरीकों पर फोकस करने का दबाब डालने लगा। उसी दौर में हमारे नए संपादक ने बैठक कर सवाल किया कि हमारे अखबार की यूएसपी क्या है? यूएसपी जसा शब्द सुनकर संपादकीय विभाग के पुराने लोग कुछ समङा नहीं पाए। तब बताया गया कि इस शब्द के मायने यूनिक सेलिंग प्वाइंट यानी अखबार को बेचने की खासियत क्या होगी? उसी के बाद राजनैतिक और सामाजिक सवालों को किनारे कर प्रसार और विज्ञापन बढ़ाने वाले कवरेज पर ध्यान देना शुरू किया गया। मसलन, दिल्ली के बाजर में सबसे ज्यादा चाट बेचने वाले व्यवसायी के बारे में क्यों न लिखा जए। इसके बाद सनसनीखेज खबरों और समाज के अभिजत्य वर्गीय लोगों के बारे में कवरेज पर जोर दिया जने लगा। उसी दौर से पेज-थ्री की नई परिकल्पना शुरू हो गई व आज और समृद्ध हो चुकी है। पहले अंग्रेजी मीडिया ने इसे ज्यादा तबज्जो दी पर धीरे-धीरे हिन्दी में भी इसने पैर जमा लिए। इस बीच हिन्दी और भाषाई मीडिया ने प्रसार के मामले में अंग्रेजी अखबारों को पीछे ढकेल दिया। जनकारी के मुताबिक-हिन्दी मीडिया में दैनिक जगरण, भास्कर, अमर उजला और हिन्दुस्तान अंग्रेजी अखबारों से काफी आगे निकल गए। दैनिक जगरण ५३६ लाख, भास्कर ३0६ लाख, अमर उजला २८२ लाख पाठकों के साथ अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया के १३५ लाख पाठकों के मुकाबले काफी आगे ज चुके हैं। जबकि क्षेत्रीय अखबार भी अंग्रेजी अखबारों को पीछे छोड़ चुके हैं। तमिल अखबार दीना थांती २0९ लाख पाठकों के साथ सबसे ऊपर आ चुका है। उसके बाद मराठी अखबार लोकमत २0७ लाख पाठकों के साथ दूसरे नंबर पर ज पहुंचा जबकि बंगाल का आनंद बाजर पत्रिका १५८ लाख, तेलगू का इनाडु १४२ लाख पाठकों के साथ अंग्रेजी अखबारों से आगे हैं। एकल संस्करण के मामले में बंगाल का आनंद बाजर पत्रिका १२,३४,१२२ प्रसार संख्या के साथ पहले नंबर पर है जबकि दूसरे नंबर पर द हिन्दू ११,६८,0४२ पाठकों के साथ है।बढ़ती प्रसार संख्या के बावजूद इन अखबारों में सामाजिक सरोकार घटता ज रहा है। अंग्रेजी अखबार अभिजत्य वर्गीय समाज पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। खान-पान, रहन-सहन, पर्यटन, कारोबार, प्रापर्टी, मनोरंजन, करियर, फिल्म जसे विभिन्न क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान दिया ज रहा है। हिन्दी मीडिया भी इसी रास्ते पर है। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रसार संख्या में पीछे रहने के बावजूद अंग्रेजी अखबारों के विज्ञापन का रेट कहीं ज्यादा होता है। इसी वजह से हिन्दी और अंग्रेजी का भेदभाव भी बढ़ता ज रहा है। विज्ञापनों से मिलने वाले ज्यादा पैसे के चलते अंग्रेजी अखबार अपने पत्रकारों पर भी ज्यादा पैसा खर्च करते हैं और प्रोडक्शन पर भी। यही वजह है कि एक ही खबर की कवरेज के लिए हिन्दी के पत्रकार को बहुत कम धनराशि मिल पाती है तो अंग्रेजी के पत्रकार को उसके मुकाबले कई गुना ज्यादा। यही भेदभाव हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों के वेतन और अन्य भत्तों में भी दिखाई पड़ता है। सामाजिक सरोकार के मामले में भी अंग्रेजी मीडिया ने जो रास्ता अपनाया, हिन्दी उसी राह पर चलती दिख रही है। विदर्भ की बात छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड की दशा कहीं ज्यादा खराब है। बुंदेलखंड में पिछले छह साल से सूखा है और कर्ज में डूबे किसानों की खुदकुशी का सिलसिला रूक नहीं रहा है। पर ज्यादातर हिन्दी या अंग्रेजी अखबारों ने अपने संवाददाताओं को बुंदेलखंड का दौरा करने नहीं भेज। राहुल गांधी जब बुंदेलखंड गए तो जरूर कुछ वरिष्ठ पत्रकार वहां पहुंचे। इन अखबारों में देश में सबसे ज्यादा बिकने का ढिढोरा पीटने वाले अखबार हैं तो आजदी के आंदोलन से निकले अखबार समूह भी हैं। संपादक को छोड़ भी दें तो अखबारों के ब्यूरो चीफ, विशेष संवाददाता और राजनैतिक संपादकों ने भी ऐसे इलाकों में जने की जहमत नहीं उठाई। यह अखबारों की बदलती प्राथमिकता का नया पहलू है। करीब आठ साल पहले मैंने इंडियन एक्सप्रेस में छत्तीसगढ़ के महासमुंद इलाके में पलायन की कई खबरें लिखीं जिन्हें काफी प्रमुखता मिली। यह इलाका ओडीशा के कालाहांडी से लगा हुआ है। जहां उस दौर में भारी संख्या में किसानों का पलायन हुआ पर तब भी ज्यादातर अखबारों ने इसे कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं माना। स्थानीय स्तर पर भी दो-तीन हिन्दी के अखबारों को छोड़ दें तो पलायन को लेकर किसी ने ज्यादा कवरेज नहीं की। ज्यादातर अखबार राजनैतिक कवरेज या फिर सरकार की उपलब्धियों का ढिढोरा पीटते नजर आए। देश की ७0 फीसदी आबादी गांव में है और मीडिया ने इस पूरे हिस्से को बाहर कर रखा है। गांव, कस्बे और जिले से खबरें आएंगी तो हत्या, बलात्कार, लूट-पाट या फिर दुर्घटनाओं की। कृषि क्षेत्र पर नए-नए संकट मंडरा रहे हैं। कहीं पानी का संकट है तो कहीं खाद-बीज और उर्वरकों का। या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खतरनाक जविक बीजों का संकट। आज के पत्रकार तो परंपरागत फसलों के बारे में ज्यादा जनते ही नहीं हैं। शहरी पीढ़ी तो धान और चावल का फर्क भी नहीं कर पाती है। योग के पांचसितारा गुरू रामदेव के ज्ञान के बाद लोग सत्तू, बेल जसी परंपरागत खाद्य सामग्री ढूंढते नजर आते हैं फिर भी बाजर में जौ का आटा तो नहीं मिल पाता है पर सौ रूपए का आधा किलो का बहुराष्ट्रीय कंपनी का ओट मील (जई के आटे से बना दलिया जसा खाद्य पदार्थ) सब जगह मिल रहा है। यदि कोई जौ के आटे का गुण जनता रहता तो ओट मील के बजय जौ, चने का आटा इस्तेमाल करता और गांव के किसान को उसका उचित मूल्य भी मिल जता। देश में कोई भी आटा दो सौ रूपए किलो का नहीं होगा। यही हाल आलू और चिप्स का है। आलू थोक में पांच रूपए पसेरी तक आ गया है जबकि सौ ग्राम आलू के चिप्स के पैकेट की कीमत दस किलो आलू से भी ज्यादा है। यह विरोधाभास कौन बताएगा? चाहे फरूखाबाद का आलू किसान हो या फिर पूर्वाचल का गन्ना किसान या फिर पंजब में गेहूं छोड़ टमाटर की खेती में जुटा किसान हो। इनसे संबंधित खबरें यदाकदा ही अखबारों में दिखती हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां गांव के चौपाल में पहुंचकर ई-चौपाल लगा रही हैं और किसानों की फसल खेत में जकर ही खरीद ले रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के टाई लगाए नुमाईन्दे तो गांव तक पहुंच ज रहे हैं पर उनके खतरे को बताने वाला पत्रकार गांव नहीं जा पाता। पी साईनाथ देश में अपवाद हैं पर हमें नहीं लगता कि वे जिस तरह का कार्य कर रहे हैं, उसके बारे में और पत्रकारों को प्रेरित करने की कोई पहल भी हुई हो। सामाजिक सरोकार के संदर्भ में ऐसी ही स्थिति जल, जंगल और जमीन की है। कृषि का रकबा कम हो रहा है और जंगल कट रहे हैं। वन्य जीवों का सफाया हो रहा है। सरिस्का की राह पर उत्तर प्रदेश का दुधवा राष्ट्रीय उद्यान भी ज रहा है। अचानक किसी दिन खबर आएगी कि अब दुधवा में बाघ नहीं रहे लेकिन इस बारे में समय रहते खबर नहीं बनती। जिला के स्तर पर माफिया, पुलिस और अफसर के गठजोड़ में जने अंजने पत्रकार भी होता ज रहा है। यही वजह है कि न तो सामाजिक सरोकार की खबरें आती हैं और न ही जन आंदोलनों की। हम राष्ट्रीय अखबारों की बात कर रहे हैं। ढाई कोस पर पानी बदले तो ढाई कोस पर बोली पर अब तो ढाई कोस पर अखबारों के संस्करण भी बदल ज रहे हैं। राष्ट्रीय अखबारों के अब जिले के संस्करण निकलने लगे हैं जो जिलों के लोगों का दायरा जिले से बाहर जने नहीं देते। उदाहरण के लिए गोरखपुर के पाठक को फैजबाद जिले तक की जनकारी अखबारों में नहीं मिलती। दूसरे छोटे-छोटे राजनैतिक दलों खासकर वामपंथी दलों के बारे में मीडिया की भूमिका और रोचक है। छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों तक जब हमने वामदलों के आंदोलन की खबरें लिखीं तो हमारे ही साथियों ने चस्पा लगा दिया कि मैं कम्युनिस्ट हो गया हूं। हालांकि समाजवादी पार्टी के बारे में लिखने पर न कोई समाजवादी कहलाया और न भाजपा की खबरें लिखने वाला भगवा ब्रिगेड का सिपाही कहलाया। एक अंग्रेजी अखबार के संपादक ने मेरे सामने ही सीपीआई एमएल के आंदोलन की खबर लेकर आए एक संवाददाता से पूछा-इनकी फालोइंग कितनी है, संवाददाता का जबाब था-ज्यादा नहीं है, सर। इस पर संपादक महोदय ने खबर फेंकते हुए कहा-फिर क्यों जगह खराब कर रहे हो? यह बात अलग है कि जिस अखबार के संपादक थे, वह लखनऊ का सबसे कम बिकने वाला अखबार था। इससे साफ हो जता है कि जनआंदोलनों पर सामाजिक सरोकार को लेकर मीडिया के एक वर्ग का रवैया आज भी सामंती है। इस बीच इलेक्ट्रानिक चैनलों की एक नई दुनिया उभर आई है। यह मीडिया जगत का फास्ट फूड बनता ज रहा है। यह क्रांति के सतत दौर से गुजर रहा है। सतयुग, द्वापर से लेकर ˜ोता युग की खबर देने वाला यह माध्यम कब क्या कर डालेगा, कुछ कहा नहीं ज सकता। कभी यह आमिर खान के बेटे पर लीड खबर देता है तो कभी करिश्मा की बेटी पर। अप्रशिक्षित और नौसिखिए लोगों के हाथ में ऐसा माध्यम होने से दुर्घटनाएं भी हो जती हैं। याद करिए वाराणसी में विकलांगों को खुदकुशी के लिए प्रेरित करने का आरोप भी इसी मीडिया पर लगा था। वहां कई विकलांगों की दर्दनाक मौत हो गई। ऐसे ही एक अन्य उत्साही पत्रकार ने दिल्ली की एक शिक्षिका चरित्र हनन किया तो नैतिकता के नए ठेकेदारों ने इस महिला के सड़क पर कपड़े फाड़ डाले और उसका जीवन तबाह कर दिया।उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल में जपानी बुखार से हजरों बच्चे पिछले कुछ सालों में मर चुके हैं पर इस मुद्दे को लेकर लखनऊ और गोरखपुर की मीडिया ने ज्यादा गंभीरता नहीं दिखाई। दिल्ली के अखबार में खबर छपने के बाद जब नेताओं का दौरा शुरू हुआ तब जपानी बुखार को लेकर रिपोर्ट आना शुरू हुई। उत्तर प्रदेश में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर नक्सली गतिविधियां होती रहती हैं। पर नक्सलवाद के नाम पर इस पूरे इलाके में आमजन से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं का जो उत्पीड़न हो रहा है, उसकी किसी भी अखबार ने कवरेज नहीं की। उदाहरण है सोनभद्र जिले की मानवाधिकार कार्यकर्ता रोमा पर एनएसए लगाने का। इस बारे में जनसत्ता ने खबर प्रकाशित की तो राज्य सरकार ने फौरन एनएसए हटाने का ऐलान किया। इसी तरह मिज्रपुर की जेल में महिला बंदियों का मामला कोई भी अखबार सामने नहीं लाता।बुंदेलखंड में पानी के लिए जंग शुरू हो चुकी है। कई जिलों में आए दिन मारपीट और हंगामे हो रहे हैं। बरसाती नदियां तो पहले ही सूख गईं। तेज प्रवाह वाली बेतवा से लेकर केन नदी तक की धार कमजोर हो गई है। सूखे और पानी के संकट के चलते ३५ लाख से ज्यादा लोगों का पलायन हो चुका है लेकिन लखनऊ के अखबारों में पहले पेज पर आईपीएल मैच की रंगीन फोटो व खबरें छपती हैं। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में मालिक से लेकर संपादक तक सभी की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। यही वजह है कि पत्रकारिता में आने वाले नए लोगों के लिए भी समाज खासकर गांव का समाज कोई मायने नहीं रखता है। वे सरकार के विभिन्न विभागों की कवरेज करते हैं, नेताओं की प्रेस कांफ्रेंस कवर करते हैं या फिर पांच सितारा होटलों में चमचमाते सितारों की खबर लाते हैं। आज अखबार के लिए खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण पैसा है, जो खबर पैसा लाने में मददगार हो, वही खबर बन रही है।अंत में भेदभाव पर, मीडिया में पहले दो वर्ग थे। आज तीन वर्ग बन गए हैं। यह रेल सेवा के प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी के रूप में नजर आते हैं। इनमें पहला हिन्दी या भाषाई अखबार का प्रिंट मीडिया है तो दूसरा अंग्रेजी का प्रिंट मीडिया। तीसरा अभिजत्य वर्ग है इलेक्ट्रानिक मीडिया। वेतन-भत्तो और सुख-सुविधाओं के लिहाज से यह वर्ग सब पर भारी है। दूसरे इसका नजरिया भी अन्य वर्गो के प्रति हिकारत वाला है। हालांकि इलेक्ट्रानिक मीडिया गए सभी लोग प्रिंट के कभी दूसरे या तीसरे दर्जे के पत्रकार होते थे। पर आज वेतन और चैनल की चमक-धमक के चलते ये अपने आप को सबसे अलग मानते हैं। यह बात अलग है कि आज भी खबरों के नाम पर नब्बे फीसदी प्रिंट मीडिया का फालोअप ही उनके पास होता है। अपवाद एक दो चैनल हैं पर सामाजिक सरोकार की बात करें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया का हाल प्रिंट से ज्यादा बदहाल है। यह तो पूरी तरह बाजर की ताकतों से संचालित हो रहा है।