मंगलवार, अप्रैल 01, 2008

इसिलए जूनियर गुरुओं कुछ सीख लो अपने आप आगे बढ़ जाओगे

वैसे तो अख़बार से बहुत प्यार करता हूं। लेकिन यहां की राजनीति देखकर जी भर जाता है। सोचता हूं कि क्यों न अख़बार छोड़ दूं। लेकिन अपने प्यार को जिंदा रखने के लिए इन सब से लड़ना पड़ेगा। वैसे अख़बारियत वो नशा है जो परिवार के नशे यानि प्यार के बाद शुरू होता है। मैं भी अभी 27 का हूं लेकिन 20 साल की उम्र से पत्रकारिता कर रहा हूं। आजकल के नए लड़के.लड़कियों जिनमें मैं भी शामिल हूं अपने सीनियर की इज्जत करना नहीं जानते। उन्हें लगता हैं बस प्रिंट मीडिया में एक दो महीने कट जाएं फिर कोई न कोई न्यूज़ चैनल वाला माइक थमा ही देगा। या फिर कुछ असंतुष्ट सीनियरों के साथ राजनीति कर इसे बाहर करवा दें। मेरी परेशानी ये कि मैंने कभी बासगीरी नहीं दिखाई क्योंकि मेरे जो बास यानि सीनियर हुए वो काफी सभ्य थे। मुझ नए नवेले खिलाडी से उन्हें कभी कोई शिकायत नहीं रही। न ही मैंने उन्हें कभी क्रास किया।
लेकिन आजकल तो जूनियरों को लगता है इसे बाहर होने के बाद संपादक उन्हें ही कुर्सी दे देगा। लेकिन उन्हें सच का अंदाजा नहीं होता कि एक अख़बार कैसे तैयार होता है। उन्हें क्या पता स्टोरी आइडिया सोचने और अख़बार के लिए पत्नी को दिए एक घंटे में भी टीवी खोलकर बैठजाते हूं या कोई किताब पढ़ने लगता हूं ताकि नालेज बढ़े खबरों के आइडिया आएं। सात साल में हर दिन 15.15 घंटे काम किया है तब जाकर सीखा है। रीडर को क्या चाहिए। और जूनियर जो कभी मैं भी था इतनी जल्दी आगे नहीं बढ़ जाता। अगर संपादक को तोककर (इंदौरी भाषा है) हिंदी में चापलूसी कर अगर आगे भी बढ़ जाते हो टिके रहने के लिए काम तो आना चाहिए बाद में खुद संपादक हटा देता है। इसलिए सीखों गुरु