बुधवार, अप्रैल 02, 2008

तो रीजनल के रीडर के साथ सौतेला व्यवहार क्यों।

कल एक साथी कह रहा था अपकंट्री एडिशन जल्दी छोड़ो जो कमी है सिटी में ठीक कर लेना। यह सुनकर मैं सन्न सा रह गया जर्नल डेस्क का साथी यह क्या कह रहा है। अगर कमी वाला अख़बार ही बनाना है तो क्यों बनाया जाता है। विज्ञापन के लिए ना। पांच अख़बारों में काम करते हुए सिर्फ एक बार लगा कि कोई रीजनल के अख़बार को लेकर संवेदनशील है। मैं दो साल पहले एक अख़बार में इंदौर में काम करता था। रीजनल को लेकर संवेदनशील रहा लेकिन कोई संपादक नहीं मिला जो मेरे जैसा सोचता हो। लेकिन इंदौर में कल्पेश यागि्नक ऐसे संपादक हुए जो अख़बार और टाइम दोनों को लेकर संवेदनशील थे। लेकिन आजकल तो बस रीजनल के नाम पर जैसा भी अख़बार हो छापने का रिवाज सा है। जल्दी छोड़ने वाले उन संपादकों से पूछना चाहता हूं कि क्या रीजनल के रीडर को वे मुफ्त में अख़बार देते हैं। या फिर कम कीमत में तो अगर जवाब न है। तो रीजनल के रीडर के साथ सौतेला व्यवहार क्यों।